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ख़ाली

मंद हवा के इन झोकों के लुत्फ़ का भी वक़्त नहीं
थक हार कर फ़ुर्सत की दो साँसों का है वक़्त नहीं
बादल की इन दो बूंदों के रस का भी तो वक़्त नहीं
दोस्त है अपने मगर साथ में दो बातों का वक़्त नहीं
दिन के कितने घंटो में से दो मिनट का वक़्त नहीं
फिर भी अपना दिन है ख़ाली 
ज़िन्दगी में वक़्त नहीं

-अनिमेष







क्यूँ ये पक्षपात?




जब कोई ज़लज़ला आता है
जब कोई जहाज़ डूबता है
तो औरतें को पहले बचाया जाता है
क्यूँ?

जब कहीं गोली चलती है
जब कहीं रेल उतरती है
तो औरतों की गिनती अलग से छपती है
क्यूँ?

"मरने वालों में छः औरतें भी शामिल"
क्या वो आठ मर्द इंसान नहीं थे?
या उनका मर जाना ही अच्छा था?
कहो!

ज़रूर उन्होंने गुनाह किये थे
तभी आठों की कीमत कुछ कम थी
वर्ना क्यूँ ये पक्षपात है?
कहो!

-अनिमेष अग्रवाल 




(अपनी टिपण्णी अवश्य दें)

कुछ मज़ा आता तो है



हाँ, घर के गर्म पानी से नहाने में मज़ा आता तो  है
पर अब कोई बाहर से दरवाज़ा नहीं तोड़ता 
न ही अब गूंजती है वो रचनात्मक गालियाँ
पर हाँ, घर के गर्म पानी से नहाने में मज़ा आता तो है


हाँ, माँ के हाथ का बना खाने में मज़ा आता तो है
मगर अब कोई मेरी प्लेट से जलेबियाँ नहीं चुराता
न अब हर हफ्ते पूरियों के लिए वहां जंग होती है
पर हाँ, माँ के हाथ का बना खाने में मज़ा आता तो है


हाँ, घूमने में, फिरने में मज़ा आता तो है
पर अब हम जानबूझ के रास्ते नहीं भटकते
रिक्शे के पांच रुपईए पर अब बहस नहीं होती
पर हाँ, घूमने में, फिरने में मज़ा आता तो है


हाँ, बाहर रेस्तरां में खाने में मज़ा आता तो है
पर अब बिल आते ही सब एक दूसरे की शक्ल नहीं देखते
अब रोटिओं और नानों  की गिनती नहीं होती
हाँ, बाहर रेस्तरां में खाने में मज़ा आता तो है



हाँ, नौकरी करने में, कमाने में मज़ा आता तो है
पर अब टाइम बर्बाद करने में वो बात नहीं रही
दरवाज़े के बाहर खड़े होकर कॉफ़ी पीने में वो बात नहीं रही
पर हाँ, नौकरी करने में, कमाने में मज़ा आता तो है



जी तो रहा हूँ में अब भी तेरे बिना मेरे यार 
ऐसे जीने में जाने क्यूँ, पर मज़ा आता तो है
तेरे साथ जो मज़ा था वो अब नहीं रहा, फिर भी
तेरी यादों में शामें जीने में, कुछ मज़ा आता तो है 



- अनिमेष अग्रवाल 
(मेरी पहली रचना है, अपनी टिपण्णी अवश्य दें)